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Bhedbhav with Girls: भारत में लड़की होने की सजा, कब बदलेगी सोच?

जानिए भारत में लड़कियों के साथ हो रहे भेदभाव, भ्रूण हत्या, सामाजिक सोच और सरकारी प्रयासों के बारे में। क्या बेटियों को बराबरी का हक मिल पा रहा है?

By: Abhinav Tiwari  RNI News Network
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Bhedbhav with Girls: भारत में लड़की होने की सजा, कब बदलेगी सोच?

लेखक- अश्वनी कुमार, आईएएस

भारत में जहाँ देवी माँ की पूजा होती है, वहाँ लड़कियों के जन्म को आज भी बोझ माना जाता है। सामाजिक भेदभाव, रूढ़िवादी परंपराएं और पुरुष प्रधान सोच बेटियों के अधिकारों को कुचल रही हैं।

भ्रूण हत्या और नवजात कन्या वध: आज भी ज़िंदा है यह अमानवीय सोच

देश के कई हिस्सों में बेटियों को गर्भ में ही मार दिया जाता है। इसे कन्या भ्रूण हत्या कहा जाता है। कई मामलों में जन्म लेने के बाद भी बच्चियों की हत्या कर दी जाती है, खासकर ग्रामीण इलाकों और गरीब परिवारों में।

पुरुष प्रधान समाज और बेटियों के प्रति असमान सोच

● बेटा वंश चलाएगा, कमाएगा और बुढ़ापे में सहारा बनेगा—यही सोच समाज में गहराई तक फैली है।
● बेटी को दहेज, जिम्मेदारी और “पराया धन” समझा जाता है।
● अंतिम संस्कार सिर्फ बेटा कर सकता है, जैसे अंधविश्वास आज भी जिंदा हैं।

जनसंख्या में बढ़ता असंतुलन और सामाजिक संकट

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में हर 1000 लड़कों पर केवल 919 लड़कियाँ थीं। कुछ राज्यों में यह आंकड़ा और भी चिंताजनक है। 2021 के आंकड़े भी सुधार की बजाय गिरावट ही दिखाते हैं।

लड़कियों की संख्या कम होने के गंभीर परिणाम

● मानव तस्करी और जबरन विवाह में बढ़ोतरी
● महिलाओं पर हिंसा और उत्पीड़न में इज़ाफा
● भावनात्मक और मानसिक नुकसान झेलती बेटियाँ

सरकारी प्रयास: क्या काफी हैं?

● PCPNDT कानून (1994): भ्रूण लिंग जांच को अवैध घोषित किया गया।
● बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ (2015): बेटी के जन्म और शिक्षा को बढ़ावा देने की योजना।

हालांकि जमीनी स्तर पर इन योजनाओं की क्रियान्वयन में अभी भी चुनौतियाँ हैं।

समाज को बदलना होगा: बराबरी की सोच अपनाएं

● शिक्षा व्यवस्था में सुधार और स्कूली पाठ्यक्रम में लैंगिक समानता की शिक्षा अनिवार्य की जाए।
● माता-पिता और शिक्षक बच्चों को समानता का महत्व समझाएं।
● मीडिया और फिल्में सकारात्मक महिला किरदारों को बढ़ावा दें।
● धार्मिक संस्थाएं प्राचीन मान्यताओं की नई व्याख्या करें जो बराबरी को बढ़ावा दे।

महिलाओं को चाहिए सहारा, न कि दया

गाँवों में महिला समूह और स्वयंसेवी संस्थाएं लड़कियों को समर्थन और आत्मविश्वास देने में बड़ी भूमिका निभा सकती हैं।

लड़की को जीने दो, आगे बढ़ने दो

भारत तब तक प्रगति नहीं कर सकता, जब तक आधी आबादी के साथ भेदभाव जारी रहेगा। एक लड़की डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, नेता या कोई भी बन सकती है—बस उसे जीने और आगे बढ़ने का मौका देना होगा।

अब वक्त है कि सिर्फ “बेटी बचाओ” नहीं, “बेटी का भविष्य सजाओ” पर भी ध्यान दिया जाए।

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This Post is  Written By अश्वनी कुमार, आईएएस (ashwanikumar.ias@nic.in)

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